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गुठली / स्वप्निल श्रीवास्तव


यह बेकार की पड़ी हुई

चीज़ नहीं है

मिट्टी-पानी मिलते ही

इसके अन्दर से उगने लगेगा

एक पौधा

धूप पाकर होगा छतनार


इसके अन्दर सोया हुआ है

एक वृक्ष

जिसके अन्दर फलों का खजाना

छिपा हुआ है


फल खाकर जिसने भी

फेंकी होगी यह गुठली

उसे यह पता नहीं होगा

कि वह अपनी ज़िन्दगी से

कितनी ज़रूरी चीज़ फेंक रहा है


यह गुठली नहीं क्रान्ति-बीज़ है

जिसमें वृक्षों की अनेकानेक

सन्ततियाँ जन्म लेने के लिए

बेचैन हैं


इसके भीतर

वृक्षों की दुनिया को कोलाहल

से भरने वाले परिन्दे छिपे हुए हैं