Last modified on 4 दिसम्बर 2011, at 03:07

गुमशुदा / पुरुषोत्तम अग्रवाल

यह औरत कुछ दिन से लापता है
दूर नहीं, पड़ोस में ही
जमना के कश्तीपुल के आस-पास कहीं रहती थी
यह औरत
किसी घर में

दीवारों का कच्चापन झाँकता है
नीली-हरी पन्नियों के चमक के पीछे
दिखता है गन्ने को लुगदी में बदलता कोल्हू
दिखता है कश्तियों का पुल
घर का नहीं, घर के जरा पास का पुल

घर का बीमार, बोशीदा दरवाज़ा
खुलते बंद होते वक़्त
कुछ कहता है
चरमराती, काँपती आवाज़ में
सुन कर कोई, कोई भी बेकाबू नहीं होता
क्यों हो? दरवाज़ फ़कत कहानी ही तो कहता है.

ख़ैर, आप तो वो सामने इश्तेहार देखिए
बीच में तस्वीर लापता औरत की
कोई फ़ोन नंबर,
कहीं नहीं बीमार बोशीदा दरवाज़ा
कहीं नहीं गन्नों को लुगदियों में बदलता कोल्हू
कहीं नहीं कश्तियों का पुल
फ़कत एक चेहरा है
गौर से इसे बाँचें
किसका है यह चेहरा
शायद आप पहचानें

इतनी सिलवटें और झुर्रियां कितनी सारी
एक दूसरे से बतियाते, एक दूसरे से लड़ते
इतने सारे निशान, एक इबारत बनाते
इस छोटे से चेहरे पर
इतनी उलझनें इत्ते से बालों में
जरा गौर से देखें
शायद आप पहचान लें इस चेहरे को

पुल, कोल्हू, दीवार और दरवाजे का तिलिस्म भेद
यह औरत तो चली आई गुमशुदगी तक
घर छूट गया पीछे ही
बच गया
लापता होने से