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गुलाल की लकीरें / रणजीत

तुमने अपनी तीन पतली उँगलियों से
मेरे माथे पर गुलाल की जो तिहरी लकीर खींच दी है
जैसे झंडे की तीन पट्टियाँ हों
(रंग तो लाल ही है
यद्यपि गुलाल का
हाँ, बीच-बीच में अबीर के
अशोक चक्र जरूर
चमक चमक जाते हैं!)
मैं उसे अपने रुमाल से पौंछ देना चाहता हूँ
पर तुम अधीर होकर हाथ पकड़ लेती हो:
'ना! होली की निशानी है!'
घर आकर मैं उसे धो देना चाहता हूँ
पर तभी मेरे मन की गहराइयों से
न जाने कौन आवाज़ कह जाती है
'ना प्यार की निशानी है!'
सोचता हूँ
काश!
तुम्हारी यह होली की निशानी,
मेरी यह प्यार की निशानी बनी रह सकती
पर कल यह होली बीत जाएगी
होली:
जो साल में एक बार आती हैं
पर एक ही दिन में बीत जाती है
अपने सारे गुलाल और अबीर के साथ
और ये होली की निशानियाँ भी
आज चाहे तुम इन्हें पुँछने से रोक लो।
और परसों यह प्यार गुज़र जाएगा
प्यार:
जो शायद ज़िंदगी में एक ही बार आता हो
और दो ही दिन में गुज़र जाता है
अपनी सारी खुशियों और रंगीनियों के साथ
और ये प्यार की निशानियाँ भी
आज चाहे दिल इन्हें धुलने से रोक ले।
तुम जानती हो:
गुलाल की लकीरें सदा बनी नहीं रहतीं
मैं जानता हूँ:
प्यार की रंगीनियाँ सदा चढ़ी नहीं रहतीं
पर फिर भी तुम्हारा हाथ उन्हें पुँछने नहीं देता,
फिर भी मेरा दिल उन्हें धुलने नहीं देता
और मैं चुपचाप खड़ा रह जाता हूँ
आइने में तुम्हारी पतली अंगुलियों से खिंची
गुलाल की उस तिहरी लकीर को देखते हुए
अपने हाथों जिसे हम मिटा नहीं पाते
पर दूसरे हाथों मिटने से बचा नहीं पाते।