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गुस्साया सूरज / सुभाष राय

सुबह का सूरज अच्छा लगता है
लाल गुब्बारे की तरह
आसमान में उठता हुआ
अपनी मीठी रोशनी में डुबोता पेड़ों को
झरता है खिड़की से मेरे कमरे में
और फैल जाता है बिस्तरे पर, फ़र्श पर

पर नही रहता वह शान्त बहुत देर तक
धरती की दुर्दशा देखते ही
तमतमा उठता है उसका चेहरा

आदमी ने काट डाले सारे पेड़
रौन्द डाले सारे पहाड़
गन्दी कर डाली सारी नदियाँ
जो वरदान मिला था उसे सूर्य से
अभिशाप में बदल डाला स्वार्थ में

गुस्साया सूरज धरती के पास आना चाहता है
उसके दु:ख में उसके बिलकुल पास
उसे वापस अपनी दहकती गोद में
उठा लेना चाहता है

आदमी छाया की तलाश में
भाग रहा है इधर-उधर
उसका झूठा ज्ञान
कब तक बचाएगा उसे