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गोपी बिरह(राग कन्हारा) / तुलसीदास


गोपी बिरह(राग कन्हारा)
 
नहिं कछु दोष स्याम को माई।

जो दुख मैं पायों सजनी सुन,
 
सो तौ सबै मन की चतुराई।1।


निज हित लागि तबहिं ए बंचक,
 
सब अंगनि बसि प्रीति बढ़ाई।

लियो जो सब सुख हरि अँग-सँग केा,

जहँ जेहि बिधि तहँ सोइ बनाई।2।
 

अब नँदलाल गवन सुनि मधुबन,
 
तनुहि तजत नहिं बार लगाई।

रूचिर रूप-जल महँ रस सो ह्वै,

मिलि, न फिरन की बात चलाई।3।


एहि सरीर बसि सखि वा सठ कहँ,
 
कहि न जाइ जो निधि फिरि पाई।

तदपि कछू उपकार न कीन्हो,

निज मिलन्योै तहिं मोहि लिखाई।4।


आपु मिल्यो यहि भाँति जाति तजि,
 
तनु मिलया ेजल पय की नाई।

ह्वै मराल आयो सुफलक सुत,
 
लै गयो छीर नीर बिलगाई।5।


मनहूँ तजी कान्हहूँ त्यागी,
 
प्रानौ चलिहैं परिमिति पाई।

तुलसिदास रीतुहु तन ऊपर,

नयननि की ममता अधिकाई।6।