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गौरव-अतीत / प्रतिभा चौहान

इस देश के चेहरे में उदासी
नहीं भाती मुझे
वजूद की विरासत बन्द रहती है
तहख़ानों में कैसे कोई राजा अपना स्वर्ण बन्द रखता है
पेड़ों पर उगने दो पत्ते नए
गीत गुनगुनाने दो हमें
हमारे गीतों की झंकार से
उन की नींद में आएगी शिकन
मेरी वज़ूद की मिट्टी कर्ज़दार है
मेरे देश की
अपनी परछाई की भी
इन चमकती आँखो में
ख़ुद को साबित करने का हौसला
नसों में दौड़ता करण्ट जैसा लहू
नई धूप के आगोश में
बनेंगे नए विचार
जिनकी तहों लिखा हुआ हमारा प्रेम
रेत-सा नही फिसलेगा
हमारी विरासत की प्रार्थनाओं में विराजमान हैं
हमारे वर्तमान के संरक्षक
हमारे डाले गए बीज
प्रस्फुटित होने लगे हैं
धरा ला रही है बसन्त
देखो
फिर से गौरव-अतीत लौट रहा है