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गौरेया / रामदरश मिश्र

बचपन में देखता था गौरैयों को
अपने कच्चे घर के आँगन में, छत्ते पर
और आसपास के पेड़ों पर-
सुबह-शाम चहकते हुए
कुछ गौरैयाँ तो दिन में भी
फुदकती रहती थीं-
आँगन में
रात को सोते समय माँ
सुनाती थी गौरैयों की कहानियाँ
और हम बच्चे सैर करने लगते थे
एक मानुषेतर लोक में, उसका होकर
घर कितना प्यारा घर लगता था।

आज शहर में चारों ओर चर्चा है कि
लुप्त हो गई है गौरैयों की प्रजाति
हाँ, शहर में कहाँ आयें और चहकें गौरैयाँ
न मकानों में आँगन रहे
न आसपास पेड़-पौधे
कितना सुखद है कि
शहर में मेरे मकान में
आँगन है और उसमें कुछ पेड़-पौधे भी
वहाँ सुबह-शाम
झुंड की झुंड गौरैयाँ चहचहाती हैं
गृहिणी द्वारा रखे गये दाने चुगती हैं
पानी पीती हैं, उसमें अदा से नहाती हैं
और अनेक भंगिमाओं के साथ नाचती हैं
मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि
बचपन से लेकर आज तक
मेरा घर घरा बना हुआ है।
-19.8.2014