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घर-बाहर / गीताश्री

घर

हम घर लेकर चलते रहे अपने कन्धों पर
पेड़ की तरह हम इसे कहीं रोप नहीं सके,
झण्डों की तरह कहीं गाड़ ना सके,
बहंगी में लचकते रहे आँगन के सपने, नीम के पेड़ और मुण्डेर पर चहचहाती फुदगुदिया,
जिसे जाल में फँसा, रंगीन करके उड़ाया करते थे
रोज़ उन्हें मुण्डेर पर गिना करते थे,
कूद-कूद कर ताली पीटा करते थे,
सबको खारिज करता है समय,
घर के सपनो को बार-बार परखता रहा
हम ढोते रहे ख़्वाहिशे भी आधी-अधूरी,
घर ना कन्धों से उतरा
ना सपने हल्के हुए, हम बोझ से दोहरे हुए
हमने तंज कसे ज़माने पर
धुनते रहे अपने सिर कि ना बनना था ना बना हमारा घर
इस शहर में
हम आए थे, जब अपने साथ घर के सपने नहीं लाए थे
वहीं रख आए थे उन्हें, वापसी का वादा करके,
पता नही कब कैसे कन्धे पर चढ़ आया घर,
भाभी ने जो रास्ते की खुराक बाँधी थी पोटली में
जिसे हम खा ना सके आज तक
कि जिसे खाया जा सकता था पीढ़े पर बैठकर अपने आँगन में...
क्या पता कि घर ना बनना था कभी घर में.

बाहर

हम तलवारे भाँजते रहे हवा में
लोग घर लूट कर ले गए
बाहर घने अन्धेरे में तलाशते रहे अपनी ज़मीन
लोग खूँटे गाड़ कर घर खड़ा कर गए
जिनकी ख़ातिर हमने महफ़िले जुटाईं
उनकी डुगडुगी बजाई
झण्डे ढोए, पालकी सजाई
वे लोग मेरे कन्धे पर लदे मेरे घर में घुस आए,
मुझे ही कर दिया निर्वासित...
मैं बेदखल सपनो की बहंगी लिए फिरती हूँ..