जीवन के रजिस्टर में अस्थाई रहा पता मेरा
कोई घर नहीं, कोई ठौर नहीं।
कोई अलहदा पहचान नहीं।
पिता की बेटी से पति की ब्याहता
और बेटे की माँ होने तक की
सारी यात्राएँ मैंने बेनाम की।
कभी पिता ने गुस्से में कह दिया था
" अपनी पसन्द से ब्याह करना है
तो मेरे घर से निकल जाओ"।
मैंने उनकी पसन्द से ब्याह करके उनकी पगड़ी बचा ली थी।
अब जब पति गुस्से में कहते हैं
"निकलो मेरे घर से"
तो पूछती हूँ "कहाँ जाऊँ?"
वे कहते हैं जहाँ मन करे वहाँ जाओ।
मन जैसी कोई चीज़ होती भी है भला औरत के पास
सोचती हूँ चुपचाप।
'घर' शब्द मेरे भीतर घोर लालसा जगाता है।
जैसे कोई बच्चा तरसते हुए, किसी खिलौने को देखता हो।
मेरे स्वाभिमान पर लगी चोटों पर
इसी शब्द की प्रतिगूंज है।
इस शब्द ने मुझे जब तब गहरे
असंतोष और अवसाद से भर दिया है।
बौद्धिक और भावनात्मक भूख के साथ-साथ
एक घर की ज़रूरत भी जब तब पेश आती रही है।
कोई एक जगह हो जहाँ ज़ार-ओ-क़तार रोया जा सके
जहाँ शर्मो-लिहाज़ छोड़कर चीखा जा सके
किसी से बेख़ौफ़ हँसी ठिठोली की जा सके
किसी को उमग कर दिलासा दिया जा सके।
जानती हूँ कि अलग घर लेना बड़ी बात नहीं
लेकिन अलग घर लेने के लिए
सबसे अलग होने का फैसला ले पाना बड़ी बात है।
घर लेना, चूड़ी बिंदी खरीदने जैसा सहल नहीं
एक सामाजिक साहस दरकार है इसके लिए
जो मेरे भीतर कभी न पनप सका।
नैतिकता और आदर्शों की एक जंजीर
सीने के चारों और सदा लिपटी रही।
इज़्ज़त और मर्यादा का एक भारी पत्थर
पैरों से सदा बंधा रहा।
'घर' मेरे लिए गहरी नींद का
कोई मीठा कच्चा स्वप्न भर है
जिसे आँख खुलते ही टूट जाना है।