चिर अभिशापित घृणा - मूर्ति परिपाक पाप केर साओन-भादव!
घन - व्रण भरल शरीर मलिन, बिजुरी नहि, ई चरक-चिह्न अछि
सलिल-धार नहिं गलित गात्रकेर पूति-प्रवाह चलल अविरल अछि
बहि-बहि जमल पीज अछि सगरो नहिं बुझबे जे ई थिक कादब
चिर अभिशापित घृणा - मूर्ति परिपाक पाप केर साओन-भादव।।1।।
हंस घृणासँ दूर पड़ैले, नदी - हृदय कलुषित भरि ऐले
बर्षा - व्याजेँ फेकि थूक नभ घृणा करय, पिच-पिच थल भेले
शरद - वैद्यकेर चरण धरथु बरु मरण शरण अछि एके लाघव
चिर अभिशापित घृणा - मूर्ति परिपाक पाप केर सावन-भादव।।2।।