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चाँद / निधि सक्सेना

उस दिन बहुत क़रीब था चाँद
हाथ बढ़ा कर उतार लिया...
मोद भरी रातरानी सा मधुर
ओस की ढलकती बूँदो सा शीतल
भोर की धुंध सा मृदु
प्रथम प्रेम सा अक्षत...

रख लिया है उसे अपनी दराज़ में
रुई के फाहों की जगह...

कि अब जब भी अन्तस में कुछ चुभता है
छिलता है दुखता है जलता है
इन्हीं ठन्डे फाहों की पट्टी करती हूँ...

सच बड़ा निपुण वैद्य है चाँद
अपने झीने हौले स्पर्श से
हर व्यथा तुरंत सहला देता है...