Last modified on 13 जनवरी 2019, at 01:52

चान्द की पूरी रात में / सुरेन्द्र स्निग्ध

चलो विमल, चलो
चलो दूर तलक
इस चाँदनी में नहाई
अनपहचानी पक्की सड़क पर
चलो,
दूर तलक चलो
हम दोनों कुछ नहीं बोलेंगे, विमल
चुपचाप चलेंगे,
चुपचाप
हमारे पैरों की चाप भी
नहीं पैदा करे कोई हलचल
इस चान्दनी के मौन को
हम नहीं करेंगे भंग
देखो, सड़कों पर नन्हें-नन्हें
खरगोशो की तरह
उछल-कूद कर रही है चान्दनी
निस्तब्धता को कर रही है
और भी निस्तब्ध
चू रही है चान्दनी सड़क के दोनों किनारों के सघन-लम्बे वृक्षों की
फुनगियों से
टपक रही है श्वेत फूलों की तरह
बहुल सम्हल के चलना है हमें
हमसे छू नहीं जाए !
विमल चलो,
चलो विमल, दूर तलक चलो
किस समय लौटेंगे, कह नहीं सकते हम
हम लौटना भी नहीं चाहते
जब तलक तना हो आकाश में
चान्दनी का चन्दोवा

तुम कह रहे हो विमल
सर, इस चान्दनी में कुछ तो है
ज़रूर कुछ है, सर
तभी तो रात-रात भर इसमें
नहाने की इच्छा होती है हमारी
इच्छा होती है
रात-रात भर इसे निहारने की
हाँ विमल, कुछ तो है ज़रूर
क्यों मैं भी रहता हूँ उद्विग्न
पूरे चान्द की रातों में
सुना है, विमल, सुना है तुमने
सागर की लहरें और भी मचल उठती हैं
चान्दनी में।
हम भी तो शायद
सागर के ही अंश हैं मित्र
हमें लगता है विमल,
(सही कह रहा हूँ-
क्यों तो ऐसा बार-बार लगता है।)
कभी पूरे चान्द की रात में ही
मरूँगा मैं
छोड़ जाऊँगा सारी पृथ्वी
इतनी ही ख़ूबसूरत और सुगन्ध-भरी
लेकिन
अभी तो चलना है बहुत दूर, मेरे मित्र !
बहुत दूर
इन अनजानी, अनपहचानी सड़कों पर
इस भरी पूरी चान्दनी में
तुम्हारे जैसे मित्रों के साथ
चुप-
चाप