एक दफ़ा हम चार लोग एक कमरे में जमा थे
सूरज ढल रहा था और हम चारों के पास
बहुत कुछ था आपस में सुनाने को
तभी शाम मेरे क़रीब आ बैठी
मेरी शाम तरो-ताज़ा थी मुझ से
चिपट कर बैठी हुई
और चूँकि वह बिल्कुल तरो-ताज़ा थी
बार-बार मुझ को भटकाए देती थी
कभी कहती देखो खिड़की के बाहर
जहाँ अंधेरा अभी पर्दा डालने वाला है
कभी दिखाने लगती अलबम
जिस में सँजों कर रखी थी उसने तस्वीरें
एक उस की जिसे मैं लगभग भूल ही चुका था
और उसकी भी जिसे मैं भुला देना चाहता था
कभी-कभी हमारी बातचीत में से
कोई एक शब्द वह लोक लेती
और कभी मेरी खाल उधेड़ने-सी लगती
इसी में मेरा गिलास गिरते-गिरते बचा
फिर थोड़ी देर में
उछल-सा पड़ा मैं अपनी कुर्सी पर
यह नहीं कि शेष तीनों ने मुझे देखा न हो
या कि अपने इस विचित्र व्यवहार पर
तीन जोड़ा निगाहों की हैरत न देखी हो मैं ने
और क्षमा-सी न मांगी हो उन से
मगर उन्हें कैसे बताता
कि अकेले वे तीन ही नहीं थे मेरे पास
कोई और भी था चिपटा हुआ मुझ से...
कुछ कहते-कहते मैं कुछ और ही कह गया
और फिर मैं हँसा
जबकि दरअसल रोना आ रहा था मुझे
और मेरी शाम मुझ से चिपटी बैठी थी
दूसरे दिन मैं ने धीरज बंधाया अपने आप को
जब नशा और साथ दोनों ही नहीं थे
कि शायद वे तीन भी अकेले न रहे हों
कि मेरी शाम की चुहल शायद मुझ से नहीं
उन दूसरी शामों से रही हो
जो शायद उसी तरह सटी हुई बैठी थीं
उन तीनों के साथ
और शायद उन तीनों का ध्यान भी
उसी तरह उचट-उचट जाता रहा हो...