चिट्ठी के बारे में कुछ कहना
उस पूरी दुनिया में डूबकर बीचों-बीच गुज़रने की तरह है
जिसका कोई ओर हो न छोर ...
कोई असफल प्यार हो ज्यों
और उसके ज़ख़्म का दर्द हो
जो सालता हो अन्दर ही अन्दर
माओं का धीरज हो
और पुत्रों के लिए उनकी आकाँक्षा
जो गलाता ही रहता हो हरदम ...
नई नवेलियों की डबडबाई आँखें हों
और पतियों के लिए उनका उलाहना
जो जलाता ही रहता हो हरपल ...
फिर ज्यों शब्द हों और अर्थ भी हों उनके अपने-अपने
इन सबके दर्द भी हों अपने-अपने
अन्त में
शरणार्थी की तरह
आशा-निराशा दुख-दर्द को
अपनी विश्वास भरी पोटली में लेकर
चली जाती थी चिट्ठी अपने गन्तव्य ...
अब भी जबकि हैं शब्द
और अर्थ भी हैं उनके अपने-अपने
अब भी ऐसा नहीं है कि न दर्द रहे न सपने
पर लोग जाने क्यों नहीं पूछते कि
नहीं आती अब चिट्ठियाँ ...
अजी ! क्यों नहीं आती हैं अब चिट्ठियाँ ...।