चिट्ठियाँ
दुःख पूछने आएँगी
शब्द
आँसू पोंछेंगे
आँखें
प्रेम के बैठने के लिए
शहर में
कोई पार्क...
कोई रेस्तराँ
कोई प्लेटफ़ॉर्म...
कोई बेंच...
कोई धँसा ढाबा...
कोना-अन्तरा जैसा
ठियाँ नहीं खोजेंगी
सिर्फ़फ देखेंगी
कैलेण्डर
तारीख़ें
और डाक-विभाग की तत्परता
चिट्ठियाँ
समय पार लगाएँगी
जिनके
शब्द कभी ओंठ की तरह
सिहरेंगे... काँपेंगे... सूखेंगे
शब्द कभी आह से थकी-मुँदी
आँख की तरह चुप मिलेंगे
पढ़कर आँखें जानेंगी
गीला दुःख
कसकता ताप
अकेलेपन का सन्ताप
मौन का संत्रास
जो किसी से कहा नहीं जा सकता
सिवाय
चिट्ठियों के आत्मीय-वक्ष के