चकई री, चलि चरन-सरोवर, जहाँ न प्रेम वियोग ।
जहँ भ्रम-निसा होति नहिं कबहूँ, सोइ सायर सुख जोग ।
जहाँ सनक-सिव हंस, मीन मुनि, नख रवि-प्रभा प्रकास ।
प्रफुलित कमल, निमिष नहिं ससि-डर, गुंजत निगम सुवास ।
जिहिं सर सभग-मुक्ति-मुक्ताफल, सुकृत-अमृत-रस पीजै ।
सो सर छाँड़ि कुबुद्धि बिहंगम,इहाँ कहाँ रहि कीजे ॥
लक्षमी सहित होति नित क्रीड़ा, सोभित सूरजदास ।
अब न सुहात विषय-रस-छीलर,वा समुद्र की आस ॥1॥
सुवा, चलि ता बन कौ रस पीजै ।
जा बन राम-नाम अम्रति-रस, स्रवन पात्र भरि लीजै ।
को तेरौ पुत्र, पिता तू काकौ, धरनी, घर को तेरौ ?
काग सृगाल-स्वान कौ भोजन, तू कहै मेरौ मेरौ !
बन बारानिसि मुक्ति-क्षेत्र है, चलि तोकौ, दिखराऊँ ।
सूरदास साधुनि की संगति, बड़े भाग्य जो पाऊँ ॥2॥