Last modified on 25 अक्टूबर 2017, at 18:27

चीखती तस्बीरें / रामनरेश पाठक

इस गहरे सन्नाटे में चीखती हैं तस्बीरें
भूरी काली चट्टानें उग आती हैं
ढेले मारते हैं मुझे दो बालक
मुझे बचाओ... मुझे बचाओ

तनहाई से ठसाठस भरी वादियों में
मुरझ-मुरझ जाते हैं महुए के फूल
निर्जन जानकारी जानकारी उदास-उदास चित्र
हजार-हजार नीली, श्याम, रक्ताभ आँखें
घूरती हैं मुझे
ब-चा...ओ...ब...चा...ओ

पवित्र निर्वेदी रंगों में उमड़ आया है मानसरोवर
वहाँ खड़ा एक योगी अशरीरी हो गया है
चीवर, कमंडलु, कैलाश से आती मंत्रब-धाराएँ
शलाखें गर्म चुभोती है मुझे
बचाओ... बचाओ

जेठ की नंगी दुपहरी है
बलात् संरमण ग्रहण करती पल्ली-श्री
एक किशोर--स्वस्थ और आक्रांत
प्रथम च्युति के सिहरते समुद्र में धंसता जाता है
बेहूदी--नंगी रेखाकृति है

पीली घूंघट की ओट से निवेदित है मूँदी दो आँखें
एकाएक उठती है, मिलती है, संपुटित होती हैं सीपियाँ
मंत्र वृक्ष मंहमंहा उट्ठा है, झरते हैं आशीर्वाद
यह शाश्वती कभी चित्रित नहीं हुई

निरलस एकांत कर्मयोगी को
सहानुभूत होती है सर्वोदयी भिक्षुनियाँ
गीता की व्याख्या सुनती-सुनती
अंतर्वासक खोल देती हैं
एकांत क्षत होता है
योगी रेशमी खादी के फूलों में डूब जाता है
प्रश्नचिन्ह प्रतीकित है : युगभ्रम! युगसत्य!!

एक मेहंदी रची कुँवारी अँजुरी
रजनीगंधा के टटके ताजे फूल
सिरहाने रख देती है
अक्षता है, अप्रस्वीकृता रह जाती है.
किराये की रागकन्याएँ
लाख बार बिक चुके चुंबन, मुस्कान और
मसला शरीर ले विदा ले रही हैं
अतृप्ति का सागर तरंगित है
समानांतर लकीरों के बीच

व्यवसाय बहता है
सृष्टि की स्थूलता में
निवृत्ति खोजता हुआ देवता
जीवन का घृणित व्यवसाय कर रहा है
और, इस गहरे सन्नाटे में
चीखती हैं तस्बीरें
मुझे बचाओ... मुझे बचाओ