चप्पी कब रोती है
पता ही नहीं चलता
चुपचाप गीली होती दीवारें
अन्दर ही अन्दर
ढह जाती भरभराकर अचानक किसी रात
सुबह मलबे के ढेर पर
अकेली खड़ी मिलती वह
घायल शेर सी तान कर जिस्म
अगली छ्लांग को आतुर।
चप्पी कब रोती है
पता ही नहीं चलता
चुपचाप गीली होती दीवारें
अन्दर ही अन्दर
ढह जाती भरभराकर अचानक किसी रात
सुबह मलबे के ढेर पर
अकेली खड़ी मिलती वह
घायल शेर सी तान कर जिस्म
अगली छ्लांग को आतुर।