एक पुराने एल्बम से वे
खुलते थे तब लॉन
बैठ जहाँ चुपचाप
कभी हम सहलाते थे दूब
लम्बी अनबोली यात्राएँ
की थीं जिनके साथ
वे रांगोली सन्ध्याएँ तो
गईं सिन्धु में डूब
विदा कहा करते
सूरज को
जिस पर जा कर रोज़
चुप्पी से बतियाती है
अब उस पुल की महराब