चुप रहो, छिपे रहो
छिपाए अपने उद्वेग और स्वप्न —
अपने मन की गहराइयों में
उठने दो उन्हें, शान्त होने दो उन्हें,
रात के तारों की तरह होते रहो
अभिभूत उनके सौन्दर्य से — और चुप रहो !
कैसे प्रकट करे अपने को दृश्य ?
दूसरा कैसे समझ सकेगा तुम्हें ?
समझ आएगा क्या उसे — किस चीज़ ने
जीवित रखा है तुम्हें आज तक ?
व्यक्त हो चुका विचार — होता है झूठ ।
खोद डालो यदि कहीं छिपा हो झरना,
जी भर कर पी डालो उसका जल — और चुप रहो ।
अपने विवेक के बल क्षमता रखॊ जीने की —
मायावी रहस्यपूर्ण विचारों का
पूरा छिपा है संसार तुम्हारे भीतर ;
उसकी आवाज़ों का गला घोंट डालेगा बाहर का शोर,
दिन का उजाला बिखेर डालेगा उन्हें,
सुनते रहो उनके गीत — और चुप रहो !