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चेहरा / कुमार मुकुल

सूरज सिर पर हो

तो मैं नहीं समझता

कि आदमी का चेहरा साफ़ दिखता है

आँखें चौंधियाती सी हैं


चांदनी में चेहरा दिखता तो है

पर पढ़ा नहीं जाता


गोधूलि और प्रात अच्छे हैं

जब चेहरे खिलते और बोलते हैं


पर तारों की रोशनी में

तो रह ही नहीं जाता चेहरा

पूरी देह होती है चुप्पी में डोलती

अन्धे शायद सही समझते हों

तारों भरी रात की भाषा

जिसे वे बजाते हैं अक्सर

और प्रेमी भी

जो बचना चाहते हैं तेज़ रौशनी से

जिनके लिए आँख की चमक भर रौशनी ही

काफ़ी होती है।