दूर देस में बहुत दूर
वह सुंदर घर था
पैसा था, पैसे से आई चीजें थीं
थे जीवन के सारे उजियारे सरंजाम
फिर वहीं कहीं कुछ कौंधा
अजब बिजूखा सा
खाली घर में
कोई ख़ुद से
ख़ुद-बुद ख़ुद-बुद बोल रहा था
आईने में पीठ एक थरथरा रही थी
फिर जैसे युगों-युगों तक
ख़ला में गूंजती हुई
ख़ुद तक लौटी हो ख़ुद की आवाज़
तनहाई के घटाटोप में
मैंने उसको
सचमुच बातें करते देखा
कुछ इंचों के चैटरूम में
लिखावट की सतरों बीच
उभर रहा था
बेचेहरा बेनाम
कोई चारासाज़..कोई ग़मगुसार..
सुख-सागर में संचित दुख
कहीं कोई था जो पढ़ रहा था
चुप-चुप रो रही थी मीरा
दुःख उसका मेरे सिर चढ़ रहा था
ठीक इसी वक़्त मेरे चौगिर्द
बननी शुरू हुई एक और दुनिया
..और सुबह..और शाम
..और पेड़..और पत्ते
..और पंछी..और ही उनकी चहक
देखा मैंने चौंक कर
वही घर वही दफ़्तर
वही चेहरे वही रिश्ते
वही दर्पण वही मन
बीत गया पल में कैसे
वही-वही पन?
होली का दिन था
चढ़ा था सुबह से ही
जाबड़ नशा भांग का
मगन थे लोग
त्योहार के रंग में
..सबके बीच अकेला
मगर मैं रो रहा था
जाने कितने मोड़ मुड़कर
ख़त्म हुई कहानी
बीत गई जाने कब
परदेसी फिल्म
फंसा रहा मगर मैं उसी दुनिया में
दूर-दूर जिसका
कहीं पता भी नहीं था