Last modified on 28 फ़रवरी 2009, at 10:53

छः कविताएँ / सौरभ

एक
झर रहा है
निर्झर-झर-झर
झर रहा है
झरना झर-झर
झरता मुस्करा रहा है
उमड़े बादलों को देख।

दो
कभी नीला आवरण सा लगता है आकाश
मोतियों से भरा
कभी दूर होता जाता
फैलता जाता दूर और दूर तक
कभी लगता है
टिका रखा है किसी ने
कभी लगता है इसने टिकाया।

तीन
कभी समय काटे नहीं कटता
भारी हो जाता है बहुत
उठाए नहीं उठता
कभी समय बहता है झरने की तरह
ताल तरंग लिये
कभी समय निकल जाता है हाथ से
पता नहीं चलता
कभी समय समाप्त हो जाता है
जब मैं हो जाता हूँ
कालातीत।


चार
सायं-सायं
चल रही हवा
रेंग रहे फुसफुसाते साए
पों पों
भागती गाड़ियों का शोर
सब अपनी अपनी दुनिया में मग्न
बढ़ा रहे इस दुनिया का शोर।


पाँच
टिक टिक टिक टिक...
चल रहा है समय
रुक रुक रुक रुक...
चल रहा हूँ मैं
ऊं ऊं ऊं ऊं...
चल रहा है अनहद नाद
छम छम छम छम...
चल रही जवानी
ठक ठक ठक ठक...
चल रहा बुढ़ापा
राम नाम राम नाम
चल रही मौत
बस आने ही वाली
किसी भी क्षण।

छः
देखो, मेरे बिन भी उजड़ रहा है
बढ़ता बादल सिमट रहा है
देखो, मेरे बिन ही सूख रहा है
पतझड़ में काँटा निकल रहा है
देखो,मेरे बिन ही उछल रहा है
छोटा बच्चा उचक रहा है
देखो मेरे बिन भी घूम रही है
यह पृथ्वी तो झूम रही है
देखो,मेरे बिन ही ठुमक रहा है
बन्धु बारात ले निकल पड़ा है
देखो, मेरे बिन ही बरस रहे हैं
यह बादल तो गरज रहे हैं
सोचो,मेरे बिन सब हो रहा है
मेरी 'मैं' तो चिटक रही है।