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छाया / पीयूष दईया

अपनी मौलिक मौत का मुंतज़िर बने।

अनाश्रय से परे, अनागन्तुक को जाने बगैर। प्रारब्ध के प्रति प्रस्तुत। पुरूषार्थी भवितव्य से जीवन की दोपहर में प्रवेश करते जब छाया सबसे बौनी होती लगती। यूं अनजान मानो अनाद्र अनुभूत का आवरण।
सारा अदृश्य अपनी पीठ पर डाले।

एक वाक्य में मरने के लिए सचमुच एक सही जगह जिसमें जीने का पता उसी तरह नहीं चल पाता जिस तरह औलाद अपनी फ़ितरत नहीं पहचान पाती। फ़ितरत जिससे फरारी नामुमकिन बनी रहती। लाइलाज जैसे।

अगणित की गणिका।
इतनी पारदर्शी लगती कि न जाने कितनों के दर्दनाक में हाथ डाले रहती।
ऐसे कि अथाह थाहरोधक लगने लगता।

स्वयं वह छाया जो बार बार कपड़े यूं बदलती जैसे रास्ते बदलती चौंक चौंक जाती। भयावने चौराहों से या अपने सोपानों के तिलिस्म में लोप होती। छटांक भर छोरी-सी। गर टाट उलट लेती तो पता लगता कि ग्रह टाले जा सकते थे। उलटी इबारतों की शुतुरमुर्गी चालों के। जिनमें सुमिरन पाटी तो रहती पर खड़िया नहीं।

जैसे स्वयं वह छाया। जिसमें मादरजात अच्छे से रह सकता।

और रोटी के रेतीले रंगों से बने लगते दूसरे के दुख यूं सुनता होता जैसे घड़ी की टिक् टिक् में रातोंरात के साल। वल्लरी की झिर्रियों से झांकते गलते ठूंठ के पीछेओर।
इतर-फितर बिलकुल।

लकड़ीली दिल्लगी पर डेढ़ घड़ी दिन चढ़ा होता पर भाप छाया जैसे जमी रहती।
चिलका पड़ता फिर धूमिल धब्बे में बिखर जाता।