हवाओं से टूटता सन्नाटा
झड़ते पत्ते
टूटती डालियाँ, हड़हड़ाते पत्थर
मैं अकेला थका-हारा निर्वासन भोगता हुआ
मेरा चलना 'चरैवेति-चरैवेति' नहीं था
सिर्फ़ चलना था
मेरी साँसें भी चलती थीं
पर किसी जीवन के लिए नहीं
सिर्फ़ चलती थीं
मुझे तो कहीं से गुज़रना था
आ पड़ा इधर ही
अपने ताप-परिताप-संताप के साथ
पर इसने क्यों मान लिया अपने दुर्दिन का साथी
डाल दिया अपनी सूखी बाँहों का घेरा
कौन होता है यह मेरा
खोले क्यों इसने अपने द्वार
मैं कहाँ आया था इसके पास।