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जड़ें / सरोज कुमार

फुनगियाँ हिलती हैं,
टहनियाँ झुलतीं है,
पत्तियाँ, फूल-फल भी,
पर मेरी जड़ें नहीं हिलतीं!
जड़े नहीं हिलतीं, इसीलिए
टहनियाँ, पत्तियाँ, फूल और फल,
झूलते हैं, झूमते हैं!

जड़ तो दिखती नहीं मेरी,
जमीन के भीतरी सफ़ो पर,
बनाती है मेरा नक़्शा!
रचती है संसार,
जमीन के नीचे,
कीचड़ से सनी हुई,
करतब दिखती है आसमान में!

मैं जितना दिख रहा हूँ
बस उतना ही नहीं हूँ!
नीचे गहरे तक उतरे हैं,
मेरे पाँव!

मैं अपनी नींव पर खड़ा हूँ!
आँधियाँ,
कितना नहीं झुकातीं मुझे,
मैं फिर-फिर,
अपनी ऊँचाइयों में,
तन जाता हूँ!

तुम मुझे पानी दे सकते हो,
जड़ नहीं!
तुम मुझे हवा दे सकते हो,
जड़ नहीं!
जड़ तो मेरी ही हो सकती है।
वो जो न हो,
तो तुम्हारा दिया पानी
मुझे बहा देगा,
तुम्हारी दी हवा
मुझे उड़ा देगी!