तीन पुत्र हो गये, किन्तु व्याकम न छोड़ा जाये
कैसे दूँ, किसको दूँ, ये प्रश्न रहे उलझाने
तीन पुत्र क्या मिले मानो तीनो लोक मिल हों
एक नाल पर, एक सरीखे तीनों कमल खिले हो
श्रेष्ठी के सुख की सीमा का कोई छोर नहीे था
किन्तु,नियति के साथ विधाता हँसता दूर कहीं था
शाणकवासी नित्य द्वार पर भिक्षा के हित आते
एक शब्द भी कहे बिना चुपचाप लौट व जाते
ऋषिवर का सह मौन पिता के प्राण साल जाता था
ऊहापोह में फँसे गृही का मोह ंबढ़ा आता था
जब भी आते शाणकवसी भिक्षु साथ में आता
भिक्षा पात्र वही भिक्षुक भिक्षा के हेतु बढ़ाता
शीश झुकाये आते भिक्षुक, शीश झुकाये जाते
आँखो ही आँखो में आशिष दे कर भी न अघाते
यह स्थिति बेहद वेधक थी,हृदय गारने वाली
झुकी प्रसन्न दृष्टि भिक्षुक की सहज मारने वाली
पहले दो बेटे तो थे अति निपुण, सधे व्यापारी
किन्तु, तीसरा शैशव से ही बन न सका संसारी
अपने में खोया रहता उपगुप्त कविक-सा
कहते सभी साधु लगता है, दिखता नहीं वणिक-सा
इसके जैसा सुन्दर तो मथुरा में एक नहीं है
पर अचरज-तन यहाँ किन्तु, मन इसका और कहीं है
लगता है सह नहीं सुगन्धों का व्यापार करेगा
यह न पिता का, अन्य जैसा कोषागार भरेगा
स्वयम् सशंकित गृही, क्या करे समझ नहीं पाता था
किन्तु, पुत्र-व्योमह नीति पर चढ़ कर, छा जाता था