जब मुझे
कुछ भी
दिखाई नहीं देता था-
न वृक्ष
न डाली
न पत्ते
बस दिखाई देती थी
चिड़िया की आँख
दिखाई देते थे तुम,
जब मैं तुम्हारे सामने
खड़ी रही
वध्य
नितान्त, बिना कवच
अपनी झोली के एक-एक
भीने पुष्प को
तुम्हारे लिए बीनती,
अपने बोलों के
हर बोल में
तुम्हारे लिए
मंगल-मंगल
टेरती,
तुमने मुझे देखा नहीं
हाँ,
देखा यह कि
तुम्हारे बहुत सारे
प्रयोजनों की भीड़ में
एक निष्प्रयोजन मैं
आस-पास
खड़ी तो नहीं-
बड़ी झेंप थी
उन दिनों तुम्हें
कि जिसे तुम
कुछ भी
गिनते नहीं
बड़े-बड़ों की पाँत में
वह क्यों छाया-सी
चलती है,
आगे
कभी पीछे
कल बहुत वर्ष बाद
हम दोनों फिर से मिले
भीड़-भाड़ में
हुए आमने-सामने
मैंने देखा वृक्ष,
वृक्षका विशाल डाली प्रसार,
डाली के हरे-भरे पत्ते,
इसके अतिरिक्त
क्या था वहाँ
जो मुझे
दिखा नहीं?