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जलावन / सुशील मानव

उपलियाँ लकड़ियाँ नहीं, चूल्हें में
जलती है स्त्री, तब पकता है दो बेर का खाना
सुलगने से भभक कर जलने के बीच
जलावन की फिक्र में सुलगी स्त्री की इच्छाशक्ति हैं धुँआ
परिवार के पेट से पहले चूल्हे का पेट सोचती
नाक-मुँह-आँख-कान धुँआ छोड़ती औरत

बेगारी के एवज में बड़े घरों से
माँग-बटोर लाती है औरतें
दो-चार दिन का गोबर
चलताऊ मेड़ के दूब सी उम्मीद लिए
टेंञ्ट पे पलरी धरे भटकती हैं औरतें, बीनने को
नीलगायों छुट्टा सांड़ों का गोबर
खेत-खेत, मेड़-मेड़
खूब उधिराए हैं गोबर-कंडों के चोर
पथरउड़े, उपरउड़े, घूरे से रोज ही गायब हो रहे गोबर
आए-दिन ही होता है झोटी-झोटउव्वल, गोबर चोरी के शक़ में
एक दूजे का पूत-भतार पिरूसे-आलन सा सानती
अपना दुख पाथती हैं स्त्रियाँ
उपले की शक्ल में
उपड़उर की ऊँचाई और गोलाई समृद्धि का स्त्री मानक है

जाड़े के दिनों का बेजोड़ ईंधन होता था कभी, ओसाया पछोरा कना
माटी की अँगीठी के बीचों बीच धर एक बोतल ठूँस-ठूस कर भरा जाता कना
तो एलपीजी की मानिंद जलता
बेधुँआ और सधे तेज आँच
बाजार की पतली आहारनली में अँटकने लगे जबसे
धनकुट्टी के मोटे अनपॉलिश्ड चावल
चावल की पतलाई की एवज में, बढ़ता ही गया
जलावन का संकट
कि कब्जिया लेता है राइसमील मालिक
भूसी और चावल का छीलन, सब

कल तक हरियाली की घाघर पहिने खड़े, तमाम पेड़
गाँव के, छिनगाकर नंगे कर दिए गए अलाव की खातिर
भूखी भेड़-बकरियों की पेट की खातिर
इक्का-दुक्का बचे बागों से गुजरना
अपने ईमान को दाग़दार करना है इन दिनों
कि फिर भी गुजरती हैं स्त्रियाँ घिनी घिनी गालियों पर चलते हुए
बीनती हुई गिरी-पड़ी लकड़ियाँ बागों से होकर

जाँघ ऊपर सिकोड़े साड़ी पुच्छा बाँधें
जोंकों से निपटने की तिकड़म में टाँगों में चपोड़े कड़ू का तेल
हँसिया, दराती, कुल्हाड़ी लिए तालाब में घुसती हैं स्त्रियाँ
कुप्पीदार बैंगनी फूलों वाला लतेर (बेहया) काटने
तालाब के सीने पर तीन घंटे जीतोड़ रण मचाती हैं स्त्रियाँ
हचककर बाँधती हैं तत्पश्चात् चार बोझ लतेर
तब तलक तालाब किनारे पहुँच जाते हैं बोझा ढोने
लंच टाइम स्कूल से भाग आए बच्चे
तरतीब से बनी चार बोरियों की चउचक गुड़ुरी सिर पे धरे हुए

लतेर की कमर पे रखकर हँसिया
अपनी टाँगों की मानिंद
दोफाड़ कर देती है स्त्री
फिर लोना छोड़ती घर, बैठका और सरिया की दीवारों
टटिया से टिकाक​​र छोड़ देती हैं उतान
ताकि जल्द से जल्द मरे बेहया का पानी
ताकि जल्द से जल्द आएं जलाने के काम
रात को जब बिस्तर पर जाती है स्त्री
पूरा तालाब सोता है उसके भीतर
नसों को सुन्न कर देने वाली ठंडक समेते हुए
पुरुष खोलता है स्त्री और खुल जाता है तालाब
पुरुष जूझता है उस तालाबी ठंडपने से कुछ देर
और फिर छोड़ देता है थक-हार कर ।