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जवाबदेही / प्रताप सहगल

कुंआ क्या होता है?
क्या होता है गाँव?
यह दो ही सवाल थे
जो मेरे बेटे ने मुझसे तब पूछे
जब मैं उसे बुद्धिमान खरगोश की कहानी
                       सुना रहा था.
सवाल यकायक लटक गए
और एक तेज़ कौंध ने/
घेर लिया
            मेरे पूरे जिस्म को
जिस्म जो मैं नहीं/एक देश है.
कल वो पूछेगा
देश क्या होता है?
तो मैं क्या जवाब दूंगा?
कुआँ और गाँव
मैंने देखे थे कभी बचपन में
और बाद में शहर की चकाचक ने
कभी यह महसूस करने का मौका/नहीं दिया
न इतना वक्त
कि कहीं अपने ही आसपास
खोद लूं एक कुआँ
बसा लूँ एक गाँव.
अब तो बस
कभी-कभी स्वप्न झरते हैं
गाँव और कुएँ के
तो कैसे अपने सपनों को
अपने बेटे की आंखों में डाल दूं.
क्या होता है गाँव?
क्या होता है कुआँ?
न कोई प्रतीक/न बिम्ब है
मेरे पास
जिसके ज़रिए मैं
उसकी कल्पना में कुछ पंख बांध दूं
न शब्द/न ध्वनि
जिसके ज़रिए
उसकी रगों में
कोई स्पन्दन पैदा कर सकूँ
तब कैसे?
कैसे उसके सामने नक्शा बनाऊं
कुएं का !
गांव का !!
देश का !!!