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ज़ंजीर / शांति यादव

वैधव्य से
उतनी दु:खी नहीं हूँ
जितनी संस्कारों की
ज़ंजीर का और
अधिक, भारी हो जाना।
सोचती थी,
औरत होने की
ज़ंजीर ही भारी थी,
मुझे अब और कैसे
सहूँगी कहीं एक
खूँटा तो था
जिससे बाँध दी।
गई छाया भी थी
जले पर
गीले फाहे-सी।
राहत भी मिलती
अब न वह खूँटा है,
न वह छाया
खड़ी कर दी गई हूँ
अनगिनत खूँटों में
जो मेरे अपने हैं
देख रहे हैं
बेरुखी से
हो रहे हैं
भयभीत
कहीं संस्कारों की
यह ज़ंजीर
उतार कर न फेंक दूँ
जो मेरे कुल की
सीमा-रेखा है,
मर्यादा है,
मेरे पैरों में
बँधी है,
जिससे बोझिल हूँ,
भावनाओं, अरमानों, इच्छाओं
का कर दिया है ख़ून
बेरहमी से।