हे सखी,
अँगारों पर पाँव धर कर
फफोले फूँकती हुई
चितकबरे काले अहसासों
से घिरी हूँ ।
मगर अब
चरमराई जूतियाँ उतार कर
नंगे पाँव
खुले मैदान में दौड़ना चाहती हूँ ।
हे सखी,
मौसम जब ख़ुशनुमा होता है
अब भी बज उठते हैं
सलोने गीत,
कच्ची उम्र की टहनियाँ
मंजरित हो जाती हैं।
यथार्थ की घेराबंदी मापते हैं पाँव ।
हे सखी,
कब तक चौराहों पर
खड़ी जोड़ती रहूँ
ज़िंदगी का हिसाब?
उम्र
चुकी हुई साँसों का
ब्याज माँगती है ।