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जागरण / रामनरेश त्रिपाठी

(१)
जाग रण! जाग, निज राग भर त्याग में
विश्व के जागरण का तु ही चिह्न है।
सृष्टि परिणाम है घोर संघर्ष का
शांति तो मृत्यु का एक उपनाम है॥
(२)
श्वास प्रश्वास इस देह के संग ही
जन्म ले नित्य के यात्रियों की तरह।
लक्ष्य की ओर दिन रात गतिवान है
जानता कौन है प्राणधारी नहीं?
(३)
देह की शक्ति का केंद्र जो है हृदय
जन्म से मरण तक सैकड़ों वर्ष तक।
हर्ष या शोक में, युद्ध या स्वप्न में
कर्म-च्युत हो कभी साँस लेता नहीं।
(४)
सूर्य की रश्मियों से तथा वायु से
नीर का घोर संघर्ष अवकाश में।
नित्य का खेल है सृष्टि के आदि से
मेघ हिम ओस प्रत्यक्ष परिणाम है।
(५)
सृष्टि के आदि से नित्य रवि और तम,
एक ही वेग से मग्न हैं दौड़ में।
क्लांत हो जाएँ पर शांत होंगे न वे,
व्यग्र हैं एक परिणाम की प्राप्ति में।
(६)
रात-दिन मास ऋतु वर्ष युग कल्प भी
सृष्टि की आयु के साथ प्रत्येक क्षण।
युद्ध में रुद्ध है क्यों न हम मान लें,
घोर संग्राम ही प्रकृति का ध्येय है।
(७)
लोक में द्रव्य बल और श्रम शक्ति का
तुमुल संग्राम अनिवार्य है सर्वदा।
सत्य है, मानवी जगत सौंदर्य से
पूर्ण है, किंतु है दैन्य ही की कला।
(८)
भव्य प्रासाद, रमणीय उद्यान, वन
नगर अभिराम द्रुत-पंक्ति-मय राजपथ।
दिव्य आभरण, कमनीय रत्नावली
वस्त्र बहुत रंग के, यान बहुत मान के।
(९)
स्वाद के विविध सुपदार्थ, श्रुति और मन-
हरण प्रियनाद को क्यों न हम यों कहें?
व्यापिनी दीनता और संपत्ति के
घोर संघर्ष के इष्ट परिणाम हैं।
(१०)
नींद जिस भाँति बल-वृद्धि का हेतु है
मृत्यु भी नव्य रण-भूमि का द्वार है।
चाहती है प्रकृति घोर संघर्ष, तो
शांति की कल्पना बुद्धि का दैन्य है।