यह
छायाओं का जुलूस है
सिर झुकाए
एक ओर जाता है
समय
कसमसाती रात में
ब्याहती कुतियों की चीखें
और सुबह की ओर जाते
हवा के काफ़िले
एक जगमगाते खालीपन में
कुछ दूधिया लकीरें
और अचेत लेटी स्त्री का सपना
ये तख्तियाँ लिए स्मृतियाँ
मौन छायाओं के जुलूस में
एक भी नारा नहीं लगातीं
यह डर है शायद
इक्कीसवीं सदी में जाता हुआ
शुभ रात्रि !