जादू / श्रीधर करुणानिधि

“सब जा रहे हैं अपने अन्त की ओर
और देखना एक दिन ख़त्म हो जाएगी हमारे हिस्से की धरती
हमारे हिस्से का यह चान्द
यह जगर-मगर करते तारे
ढरके दूध की तरह यह आकाशगंगा
हमारी इस धरती के सारे पहाड़, जंगल और नदियाँ।”
“क्या तुम्हें नज़र नहीं आता डर सबकी आँखों में !
ख़ुद तुम्हारी आँखें भी कर देती हैं बयान”

“सोचो नहीं
देखो !
देखो, जहाँ तक देख सकते हो
छूओ, जिसे तुम छू सकते हो
ख़ुद ब ख़ुद सिहरन होगी तुम्हारी देह में
ख़ुद ब ख़ुद सुनोगे तुम अन्त का गान
जो बज रहा है मादक धुन की तरह
हवा, मौसम, रंग और बादल में
चिड़ियों की चहक
कलियों की शोखी और लाल-लाल ताज़ा पत्तों में
अगर सुन सको एक मासूम बच्चे की तरह
अगर बन सको उनकी तरह मासूम

बातें करो नदी से
पहाड़ के कन्धे पर धरो अपने हाथ
उनसे उनकी भाषा में बातें करो

किसान की आँखों में झाँको
देखो उनके हल-बैल, उनके उजड़े खेत
कुम्हार के टूटे चाक
बढ़ई के बेकार पड़े बसूले को ...

महसूस करो मातमी सन्नाटे
बरगद के नीचे नोच-नोच कर गिराए गए
घोंसलों पर रोती चिड़िया का दर्द
दुबली होकर सूखती गाँव की धार के सर्द चेहरे
ख़त्म होती जीवन की लय का भयगान
और सदियों से संचित कथाएँ और गीत”

“क्या तुम्हें नहीं लगता कि
हमारी रगों में
हौले-हौले फैलता जा रहा है
एक ख़ूबसूरत मीठा ज़हर
और हम नीम बेहोशी में खोए कर रहे हैं वही
जैसा कहता जाता है वह जादूगर...।“

“क्या तुम्हें नहीं लगता कि
अपने मायाजाल में
वह होशियार जादूगर समेट लेगा
मिट्टी पसीने से बनी और मेहनत से
सजी-सँवरी हुई यह हसीन दुनिया !

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