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जानना / रघुवीर सहाय

आह कितना कष्टकर है जानना यह
किस तरह बचपने से हम बड़े होते जा रहे हैं
और यह तो जानते ही थे कि अपनी आयु
सीमित है, अधिक भी वह नहीं है
जान अब यह भी गए हैं दिन बराबर और
छोटे हो रहे हैं।