जाने क्यों, प्रिय,
जी भर कर बातें हो न सकीं
बढ़ गया दर्द इतना ये आँखें रो न सकीं
बहुतेरा ही दुलराया-बहलाया मन को
पर जगी हुई काली छायाएँ सो न सकीं ।
(1945 में बनारस में रचित)
जाने क्यों, प्रिय,
जी भर कर बातें हो न सकीं
बढ़ गया दर्द इतना ये आँखें रो न सकीं
बहुतेरा ही दुलराया-बहलाया मन को
पर जगी हुई काली छायाएँ सो न सकीं ।
(1945 में बनारस में रचित)