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जा तो सकता हूँ, पर क्यों जाऊँ ? / शक्ति चट्टोपाध्याय / मीता दास

सोचता हूँ पलट कर खड़े होना ही बेहतर है ।

इतनी कालिख जो मली है दोनों हाथों में
                          इन बीते वर्षों में !
कभी तुम्हारी तरह से इसे सोचा ही नहीं ।

अब खाई के क़रीब रात में खड़े रहने पर
चान्द आवाज़ देकर बुलाता है, आओ ... आओ
अब गंगा के घाट पर सुप्त अवस्था में खड़े रहने से
चिता की लकड़ियाँ बुलाती हैं, आओ ... आओ

जा तो सकता हूँ
किसी भी दिशा में जा सकता हूँ
पर, क्यों जाऊँ ?

अपनी सन्तान का चेहरा अपने हाथों में थाम कर एक चुम्बन लूँगा

जाऊँ....
पर, अभी नहीं जाऊँगा
तुम लोगों को भी संग ले जाऊँगा
अकेला नहीं जाऊँगा मैं यूँ ही
असमय ।

मीता दास द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित