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जीवन / गरिमा सक्सेना

उलझो अगर
लताओं-सा
वृक्षों पर उलझो
उलझो मत
उड़ती पतंग के
माझे जैसा

विषधर लिपटाकर
भी तन का
चंदन रहना ही जीवन है
कड़ी धूप को
गुलमोहर-सा
हँसकर सहना ही जीवन है

टूटो अगर
पत्तियों जैसा
भू में मिलकर
खाद बनो
मिटने पर भी
जीवन हो वैसा

रचो अगर तो
नयी सुबह-सी
सूने नभ पर लाली रच दो
और मेघ सम
इस धरती पर
मिटकर भी हरियाली रच दो

अगर बढ़ो तो
घने वृक्ष-सी
छाया भी दो
जो न किसी के
काम आ सके
बढ़ना कैसा?