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जीवन / विजेन्द्र

ढ़ोल बजा कर जगा रहे हैं
तिकड़ी अपनी
बना रहे हेै ।
रंग बहुत हैं
ढंग बहुत हेैं
चुनूँ कहाँ से
कैसे जानूँ
कौन साँच है
कौन है झूठा
खिचड़ी अपनी पकर रहे हेैं।
कुछ असली हैं
नकली ज्यादा
बनते फरजी
वैसे प्यादा
कपट सूत बुनने-गुनने को
कुटिल चाल पैनी तकली को
रिक्त व्योम में
घुमा रहे हैं।
हाथ में फूल
बगल में गड़सा
चोर भुम्मि में
पाप है लड़सा
हँस कर मुझको
बुला रहे हैं
बडे भवन हैं
चौथे पथ हैं
भूखे टूटों की आँच भभकती
आँखो में इस्पात झलकती
लोहा-लंगड़ गला रहे हैं।
खिली धूप में झाड़ कटीले
धौरों पर खडिहार हठीले
न हो साथ
न हो कोई
लोय घनी अंदर जलती हैं
जीवन अपना धका रहे हैं।
                2001