अंधेरी रातों के निचाट
सूनेपन में
तानपुरे की सी
झींगुर की आवाज
जीवाशा है।
जेठ की भरी दुपहरी में
जब गर्म हवाओं का शोर है
चारो-ओर
तभी बर्फ-गोले वाले की
घंटी की आवाज
जीवाशा है।
ठिठुरती सर्द रातों में
मड़ई में रजाई में पड़े पड़े
जब अपनी दाँत ही
कटकटा रही हो
रोते कुत्ते की करुण किकियाहट
जीवाशा है।
जीवन के कठिनतम समय में
भी
बची रहती है
एक जीवाशा।