जूण / ओम पुरोहित ‘कागद’

सूने पड़े गाँव के
ऊँचे से धोरे पर

लीर-लीर धोती
तार-तार पाग
लिगतर फट्टाक मोजड़ी पहने
सुगनिया ढूँढ़ता है
हुक्के के पैंदे में पानी
बुझी राख में आग

मिले तो खींच ले
दम-भर एक सुट्टा
ले चले बुझती जूण को
दो पाँवड़े आगे तक ।

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