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जैसे / प्रभात

 जैसे पेड़ को नहीं बताना पड़ता
मैं क्यों बैठा हूं उसकी छांव में
जैसे राह को नहीं बताना पड़ता
मैं क्यों चल रहा हूं उस पर
जैसे नदी को नहीं बताना पड़ता
मैं क्यों जा रहा हूं दूसरे किनारे पर
जैसे बादलों को नहीं बताना पड़ता
कहां तक चलूंगा उन्हें देखता

जैसे तुम्हारे चेहरे को नहीं बताना पड़ता
क्यों पड़ा हूं उसमें, घास में नाव की तरह
जैसे तुम्हारी आंखों को नहीं बताना पड़ता
क्यों तोते की तरह लौटता हूं इन्हीं कोटरों में
जैसे तुम्हारे कानों को नहीं बताना पड़ता
क्यों सुनाई देता हूं फूलों के टपकने की तरह
जैसे तुम्हारे पांवों को नहीं बताना पड़ता
क्यों घर में घुसने से पहले फटकारी जाने वाली धूल हूं मैं
जैसे तुम्हारे बदन को नहीं बताना पड़ता
क्यों तुम्हारे नहाने का पानी हूं मैं