ज्योत्स्ना, हृदय में भर रही तू दिव्यतम आह्लाद
लाया, बता क्या साथ निज प्रभु का पवित्र प्रसाद?
यह सृष्टि सारी, कर रही है समुद तुझमें स्नान
निश्चय शमन संताप तू, प्रभु का परम वरदान।
ज्योत्स्ना, चली तू स्वर्ग से ही आ रही इस काल
कैसी वहाँ की चाल है, क्या है वहाँ का हाल?
जाते यहाँ से लोग जो वे क्यों न आते हाय!
क्या भेंट होने का उनसे विश्व-बीच उपाय?
देखा, बता, तूने परम प्रभु का कभी क्या रूप?
है सत्य ही क्या वे सनीर-सुनील-जलद स्वरूप?
तूने कभी क्या गात पर उनके किया सुप्रकाश?
लाया चुरा सचमुच न क्या उनका सुधामय हास?
ज्योत्स्ना, पहनकर तू सुभग नक्षत्र विजटित-माल,
आती निशा की शून्यता में ले सुरों का जाल।
कल मुखर तटिनी-तीर-सिकता पर सुआसन डाल
ब्रीड़ा-सहित कमनीय-क्रीड़ा में बिताती काल।
ज्योत्स्ना, परम प्रभु की अहा! तू दूतिका विख्यात
तू स्वर्ग एवं मर्त्य का सम्बन्ध करती ख्यात।
लाती न जो तू वहन कर सन्देश नित्य नवीन,
जीवन निपट तो हाय! मम उठता न क्या हो दीन
-श्री शारदा, जून, 1922
-माधुरी, सितम्बर, 1928