Last modified on 20 जुलाई 2010, at 20:15

झाइयाँ देती / हरीश भादानी

झाइयां देती,
हिलकती पर्त के उस पार-
हरे-भूरे
सहारे के लिये भटकती
ओ, यायावरी इच्छा-मछलियों !
छप-छपक ध्वनियाँ सुनो-
कि मौसम का शिकारी
तुमको
याद की गाँठें लगाकर
बाँध लेना चाहता है,
बँध गई तो
तुम उमर भर
वर्जना की काठवाली
नाव की दीवार ही देखा करोगी,
ठूंठ जैसी
परिधियां पहरा करेंगी,
और तुम तड़पा करोगी,
एक दिन मर जाओंगी;
ज़िन्दगी की ललक
ओ, इच्छा-मछलियो !
सुनो, ये सीमाहीन पतैं भेद
आगे-और आगे सरक जाओ,
कि गहरे-
और गहरे पैठ जाओ,
और थोड़ी दूर पर ही
जलोदरी घड़ियाल
पानी के सौपोले
जो तमको निगलने की बाजी लगा
ऐंठे खड़े हैं,
तुम उनसे होड़ लो,
उन सबको थकन दो,
लड़ो-लड़ती मरो,
ओ, साँस पीकर जी रही इच्छा-मछलियों !