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झिलमिल / त्रिनेत्र जोशी

निपट अँधेरे में
चारों ओर
गिरती-पड़ती हैं हवाएँ
और पगडंडियाँ

संगीत के स्वरों में
छप-छप बजती हैं साँसें
स्वर से स्वर तक
धमक-गमक रहे हैं सुरों के पाँव
चारों ओर शीतल चाँदनी का मद्धिम विस्तार
अभेद छिटकी है
झरने रास्तों पर जाते हैं चलकर
नीलेपन तक भीतर ही भीतर
एक लय / रवाँ होती है
दूधिया भी हो सकता है समाजवाद
धरती पर तारों की तरह छिटके हैं-
अभाव और अपमान
और सिकुड़ कर सिसकतीं गुर्बत की बस्तियाँ
बहलाता-थपथपाता सरक रहा है संगीत
अन्न के कुछ दानों की तरह
टिमटिमाती हैं अनुगूँजें
सुर से सुर तक
झिलमिलाती है एक मरीचिका