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झुनझुना / अनिता भारती

जब भी मैं
आवाज उठाती हूँ
तुम तुरंत
जड़ देना चाहती हो
मेरे मुँह पर
नैतिकतावाद की पट्टी

मैंने तुम्हारे सामने
तुम्हारे बराबर खडे होकर
कुछ सवाल क्या पूछे
कि तुमने मुझे एक तस्वीर की भाँति
कई फतवों से मढ़ दिया
मसलन मर्द की सहेली
औरतों की आज़ादी की दुश्मन
पितृसत्ता की पैरोकार
आदि-आदि

मैने तुमसे पूछा
स्त्री आजादी का मतलब क्या है?
क्या अनेक मर्दों से
संबंध बनाने की स्वतंत्रता?
या फिर अपने निर्णय
स्वयं लेने की क्षमता?
या कोरी उच्छृंखलता?
तुमने मुझे स्त्री मुक्ति विरोधी
साबित कर दिया

मैंने तुमसे पूछा
हमारे समाज की औरतों पर
रेप दर रेप पर क्या राय है?
चुप्पी क्यों है तुम्हारी?
तुमने कहा
कर तो रही है हम
बलात्कार पर बात
जो रोज हो रहा है
हमारे घर पर हमारे साथ
और आस-पास

मैंने पूछा
क्यों नही लाती तुम
अपनी संवेदनशीलता के दायरे में
गरीब टीसती
दलित औरत का दर्द?
तुमने कहा
अरे रहती है वे हरदम
हमारे साथ
भीड़ में हमारी आवाज बनकर

मैने पूछा भीड़ कब
मंच का अभिन्न हिस्सा बनेगी?
तुमने झट कहा
अभी नही
अभी वक्त नही है
अभी हमें मत बाँटो
अभी हमें जाना है बहुत दूर
पहले ही देर से पहुँचे है यहाँ तक
अब तुम आगे से हटो
सब कुछ रौंदते हुए
आगे बढ़ने दो हमें
तुम्हारे बोलने से
हमारी एकता टूटती है
हमारा संघर्ष बिखरता है
अच्छा है तुम चुपचाप
हमारे साथ रहो
आँख मुँह कान पर पट्टी बाँधे
सब्र का फल हमेशा मीठा होता है
जब हम मुक्त होगी तब
तुम्हारा हिस्सा
तुम्हें बराबर दे देगीं

और तुम मुझे हमेशा
सब्र के झुनझुने से
बहलाना चाहती हो
पर अब इस झुनझुने के पत्थर
घिस चुके है
उनकी आवाज घिसपिट चुकी है
सुनो,
अब अपना झुनझुना
बदल डालो।