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डकबंगला / मुनेश्वर ‘शमन’

बिना कोय आस के/ चाह के
कते मन से/ लगावे हे गला
डकबंगला!
हर जानल-अनजानल के,
गहराल अन्हरिया साँझ
अपरिचित जगह
अनजान-सुनसान सड़क-डगर
अजनबी-माहउल
सब के सब रोप देहे
अजब अंदेसा/ अनेक तरह के डर।
बेआसरय आदमी
कतना मजबूर-कतना लाचार होवे हे।
अइसन में
बँहियाँ पसारले बोलावे हे
अपना तरफ डकबंगला।
हुलस के अपनावे हे
अउ दे जाहे एगो भरोसा
ढेर मनी चैन/ जरूरतमंद के।
पले भर में बना लेहे/ अपनापन के रिस्ता।
मुदा लोग / एक्के झटका में
सब रिस्ता तोड़ के / चट एकरा छोड़ के
चल देह।
केतना अकेला-उदास
हो चाहे तब ई,
वीरानी पसर जाहे एकरा भीतर।
दिनोदिन छोट हो रहल/
सिकुड़ल दिल आज के इन्सान
ले सके हे उधार
हिरदय के उदारता / विसालता
डकबंगला से।