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डोंगी / दिनेश कुमार शुक्ल

फोन के तारों का सन्नाटा
देर तक बजता रहा दोनों तरफ
एक युग के बाद जैसे, सुनी उसने
फिर वही आवाज, लेकिन कुएँ से आती हुई
‘क्या सचमुच अब भी तुम आ पाओगे इधर...’

आवाजों में उलझी कितनी आवाजें थीं
थे कितने अनुनाद परस्पर गुँथे हुए-से
जिज्ञासा को बरज रही-सी एक खुशी थी
अचरज-आग्रह-अहंकार सब भरा हुआ था एक प्रश्न में
छलक रही थी उम्मीदों से नाउम्मीदी
एक उलाहना देता-सा उल्लास छुपा था आतुरता में
आवाजों की लटों की बटी प्रेमडोर पर
आशालता फैल कर छूने लगी गगन को
तभी एक दिन काली आँधी उठी
एक झटके में टूटी प्रेमडोर
जो गाँठ लगाने पर भी जोड़े जुड़ न सकी
सन्नाटा खिंचता चला गया पच्चीस साल
सो टूटा वह भी लेकिन तब
जब दुनिया ही टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर गयी
लौटे सब अनुनाद और लौटीं आवाजें
आखिर को वे मिले थकी आँखों के खंजन चार
एक-दूजे से पहली बार
पंचतत्त्व की सीमाओं के पार उन्हें जा कर मिलना था
स्वप्नों और कल्पनाओं के परे किसी अनजाने तट पर

हाथों के चप्पू थे साँसों की थी डोंगी
जिस पर चढ़ कर पार कर रहे थे वे सतलज
रुद्र शतद्रु समुद्र की तरह गरज रही थी...।