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ड्योढ़ी / हरीश भादानी

ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए
कुनमुनते ताम्बे की सुइयां
खुभ-खुभ आंख उघाड़े
रात ठरी मटकी उलटा कर
ठठरी देह पखारे
          बिना नाप के सिये तकाजे
सारा घर पहनाए
ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए

सांसों की पंखी झलवाए
रूठी हुई अंगीठी
मनवा पिघल झरे आटे में
पतली कर दे पीठी
          सिसकी सीटी भरे टिफिन में
बैरागी-सी जाए
ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए

पहिये पांव उठाये सड़कें
होड़ लगाती भागे
ठण्डे दो-मालों चढ़ जाने
रखे नसैनी आगे
          दोराहों-चौराहों मिलना
टकरा कर अलगाए
ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए

सूरज रख जाए पिंजरे में
जीवट के कारीगर
घड़ा-बुना सब बांध धूप में
ले जाए बाजीगर
          तन के ठेले पर राशन की
थकन उठा कर लाए
ड्योढ़ी रोज शहर फिर आए